Friday, June 1, 2012

मीरा की पीर






आसमान पर घिरी घटाएँ
जिस तरह,
मन पर .. तुम्हारी यादें
वैसे ही
वो बरसें न बरसें
पर ये सिर्फ बरसना
ही जानती हैं

कब, कहाँ मेरा कहा मानती हैं,
जीवन भर की पीड़ा सिमट आई है,
दो नयनों के बीच
जाने कि तना जल है
अवि रल धार,
विपुल धार,
लिए –

अस्तित्वहीन,
दरस बिन
वजूद खोते हैं,



चुपचाप आते हैं,
जाते हैं,
क्या ये पलायन है
यथार्थ से?
ऎसा तो नहीं लगता
इस ‘मीरा के कृष्ण’
तुम कहाँ हो?

पाषाण था वो भी
और तुम भी,
एक चोट, एक दर्द,
जो दिया तुमने
कब तक संभालती रहूँ
तुम मूक रहो
स्थिर रहो

जग करे तुम्हारी
आराधना,
मैं अस्थिर रहूँ
बिह्वल रहूँ
मेरी होती रहे
भर्त्स ना क्यों?

फिर भी कहीं
अर्न्तमन में
कोई तुष्टि है,
इस पीड़ा में ही
कहीं कोई संतुष्टि तो है

दो और दो स्वीकार्य
मुझे है,

पीड़ा में, आँसुओं में
तुम्हे ही पाती हूँ
सारे साधन बन जाते हैं
सारे दर्पण बन जाते हैं,
लताओं से, वृक्षों से
सीता का पता पूछने वाले
राम की भांति
सबमें तुम्हे ही पाती हूँ –
‘हे मेरे कृष्ण’ तुम पाषाण ही रहो।

***

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